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सोमवार, 9 सितंबर 2019

कहीं मत जाना तुम

बिनसुने - मन की व्यथा --
दूर कहीं मत जाना तुम !
किसने - कब- कितना सताया -
सब कथा सुन जाना तुम ! !

जाने कब से जमा है भीतर --
दर्द की अनगिन तहें , 
जख्म बन चले नासूर - 
अब तो लाइलाज से हो गए ; 
मुस्कुरा दूँ मैं जरा सा -- 
वो वजह बन जाना तुम ! ! 

रोक लूंगी मैं तुम्हे - 
किसी पूनम की चाँद रात में ,
उस पल में जी लूंगी मैं-
उम्र सारी - तुम्हारे साथ में ;
नील गगन की छांव में बस - 
मेरे साथ जगते जाना तुम ! 

एक नदी बाहर है - 
इक मेरे भीतर थमी है ,
खारे जल की झील बन जो -
कब से बर्फ सी जमी है ;
ताप देकर स्नेह का -
इसको पिंघला जाना तुम ! ! 

साथ ना चल सको - 
मुझे नहीं शिकवा कोई , 
मेरे समानांतर ही कहीं -
चुन लेना सरल सा पथ कोई ; 
निहार लूंगी मैं तुम्हे बस दूर से - 
मेरी आँखों से कभी- ओझल ना हो जाना तुम ! !

बिनसुने -- मन की व्यथा - 
दूर कहीं मत जाना तुम  !!
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