ना उघाड़ो ये नंगा सच
ढका ही रहने दो , कवि!
दर्द भीतर का चुपचाप
आँखों से बहने दो कवि!//
ये व्यथा लिखने में,
कहाँ लेखनी सक्षम कोई ?
लिखी गयी तो ,पढ़ इन्हें
कब आँख हुई नम कोई ?
संताप सदियों से सहा है
यूँ ही सहने दो कवि!
डरती रही घर में भी
ना बची खेत - क्यार में
कहाँ- कहाँ लुटी अस्मत
बिकी बीच बाज़ार में !
मचेगा शोर जग -भर में
ये जिक्र जाने दो ,कवि!
लिखने से ना होगा तुम्हारे
सुनों ! कहीं इन्कलाब कोई
रूह के जख्मों का मेरे
ना दे पायेगा हिसाब कोई
मौन रह ये रीत जग की
निभ ही जाने दो, कवि !
दर्द भीतर का चुपचाप
आँखों से बहने दो कवि!/