सुनो ! कवि , धर्म तुम्हारा बहुत बड़ा
कभी कुटिल , कपट व्यवहार ना करना
निज तुष्टि की खातिर बिन सोचे
मर्मान्तक प्रहार ना करना !
तुम संवाहक सद्भावों के ,
करुणा के अमिट प्रभावों के ;
बुद्धिज्ञान के दर्प,गर्व में
फूल व्यर्थ की रार ना करना !
कवि , धर्म तुम्हारा बहुत बड़ा !!
सदियों रहेगी गूँज तुम्हारी वाणी की ,
सदियों रहेगी गूँज तुम्हारी वाणी की ,
सौगंध तुम्हें कविधर्म , माँ वीणापाणी की ;
फूल बनाना शब्दों को
फूल बनाना शब्दों को
बनाकर खंज़र वार ना करना
सुनो कवि ! धर्म तुम्हारा बड़ा ! !