ज्ञात नहीं मुझे
ज्ञात नहीं मुझे
तुम्हारे भीतर
मेरे हिस्से का प्रेम!
तुम्हारे प्रेमिल संवाद में भी
ढूँढ सकी ना खुद को यथावत ,
एक मरीचिका में बंधी
खोजती रही खुद को!
तुम्हारे गीतों में
तुम्हारे अनकहे शब्दों में!
अनायास तुम्हारे
बिनकहे जाने से,
लग गई है मुहर ,मुझ पर
पराएपन की!
ठगी -ठगी हूँ मैं।
आज अभी-अभी इस
भ्रामक नींद से जगी हूँ मैं!!