यह ब्लॉग खोजें

शनिवार, 8 मार्च 2025

ज्ञात नहीं मुझे

 ज्ञात नहीं मुझे

तुम्हारे भीतर 

मेरे हिस्से का प्रेम! 

तुम्हारे प्रेमिल संवाद  में भी

ढूँढ सकी ना खुद को यथावत , 

एक मरीचिका में बंधी

खोजती रही खुद को! 

तुम्हारे गीतों में

तुम्हारे  अनकहे  शब्दों में! 

अनायास तुम्हारे

 बिनकहे जाने से, 

लग गई है मुहर ,मुझ पर

पराएपन की! 

ठगी -ठगी हूँ मैं। 

आज अभी-अभी  इस 

भ्रामक नींद से जगी हूँ मैं!!