तन पर काँटे लेकर जीना
बंधु! मेरे आसान कहाँ?
सदियों सी लंबी पीड़ा भीतर
सुख से मेरी पहचान कहाँ?
ना आती तितली पास मेरे
ना सुनाते भँवरे गीत मुझे
आलिंगन में भर प्यार जताता जो
मिला न मन का मीत मुझे! ❤
सुगंध न मोहक व्याप्त मुझमें
लुभाती मेरी मुस्कान कहाँ!
सदियों सी लंबी पीड़ा भीतर
सुख से मेरी पहचान कहाँ?
शापित सुत धरा का मैं,
कामना कोई भीतर शेष कहाँ!
चुभन देता मैं काँटों की ,मेरा
मृदुल और कोमल भेष कहाँ!
एक पल में सब रीझें जिस पर
मेरा वो रसीला गांन कहाँ!
सदियों सी लंबी पीड़ा भीतर
सुख से मेरी पहचान कहाँ?