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सोमवार, 9 जून 2025

माँ की रात न कटती

 

विकल माँ की रात न कटती।
एक -एक पहर बीते मुश्किल से
जब तक पौ न फटती!

ताक रही निशब्द और एकाकी
कब भोर उगे चिड़ियाँ चहके!
 
शिवालय से भक्ति के सुर बिखरें 
खिलें फूल और आँगन महके!
न कटते दूभर पल प्रतीक्षा के .
बस बंद द्वार को  तकती!
विकल माँ की रात न कटती!

अशक्त हो भूली बाहर की दुनिया
घर में ही नज़रबन्द हुई!
हुई अरुचि  हर एक सुख से
जीने की कामना मन्द हुई!
जी भरा देख हर रंग जीवन का
देखी दुनिया बनती मिटती
विकल माँ की रात ना कटती!

सर सहलाते अब भी ना थकती
सुनती हर व्यथा मन की
आशीषों की झड़ी लगाती
हर लेती पीड़ा सब जीवन की
मंगल कामना में कुटुंब की
रहती राम की माला जपती!
विकल माँ की रात न कटती!


रोगों की मारी देह से हारी
हुई बेबस और लाचार सी माँ!
अप्रासंगिक समझ रही खुद को
कहती खुद को बेकार सी माँ!
मन के दर्द  सुन ले हर कोई
तन की पीर ना बंटती!
विकल माँ की रात ना कटती!

शनिवार, 31 मई 2025

।माँ- बेटी

 

जब माँ- बेटी ने मिल कर
कुछ रातें संग बिताई होंगी
जी भर गुरबत कर बेटी से
माँ खुल कर मुस्काई होगी।

भला बुरा जिसने जो किया
बस अपने ऊपर भार लिया,
याद ना रखती माँ कुछ भी
सबका हर दोष बिसार दिया,
गुनते लेखा-जोखा जीवन का
माँ की आँख भर आई होगी

नाती -पोतों से  भरा है आँगन
माँ की शान गजब की है!
दामन में भर दुआएँ बैठी
माँ धनवान गज़ब की है,
सुख देख रही सांझे कुल का
कहाँ ऐसी नेक कमाई होगी

काया हो जर्जर रह गई आधी
होता देख जिया को कम्पन
छुआ होगा जो  बेटी  ने माँ को
डराती होगी देह की ठंडक
 स्नेहिल स्पर्श से बेटी के
कमजोर देह गरमाई होगी
जी भर गुरबत कर बेटी से
माँ खुल कर मुस्काई होगी।
🙏🙏🌹🌹





सोमवार, 14 अप्रैल 2025

क्यों ना बतलाया तुमने?

 

तुम तो अक्सर  कहती थीं 
 कि मैं तुम्हारी जान थी माँ 
 पर क्यों न बतलाया तुमने 
 मैं इस घर में मेहमान थी  माँ 

सजा -संवार कर घर-भर को 
जब प्यार से महकाती थी 
मैं  हूँ तुम्हारी  लाडली बिटिया, 
 कह चूम-चूम दुलराती थी 
 पर ये घर मेरा  ना  था अपना 
 इस  राज़ से मैं अनजान थी माँ 
 
 क्यों कहा सदा पराई सबने 
ये बात समझ ना आती थी 
कहाँ मेरा वज़ूद अलग था
तुमसे लिपट कर रहती थी! 
कुछ तो सच कह देती मुझसे
तुम मेरा भगवान थी माँ! 

जिस आँगन  को अपना माना  
क्यों  यहाँ सदा ना रह पाई
क्यों दूर है हर बेटी का घर
ये बात ना कभी समझ पाई! 
 नियति जुड़ी परदेश से मेरी
ये देख के मैं  हैरान  थी माँ
 पर क्यों न बतलाया तुमने 
 मैं इस घर में मेहमान थी  माँ

मंगलवार, 1 अप्रैल 2025

कवि! तुम कहाँ लिख सकोगे ?

 कवि! तुम कहाँ  लिख सकोगे

 कहानी नारी के अधिकार की! 

जिससे मुक्त न हो सकी कभी

उस मन के कारागार की!! 

 

ना पढ़ पाओगे  सूने नयन के

खंडित सपनों की ये  भाषा ! 

आ सकी ना विदीर्ण मन के

काम कोई जग की  दिलासा! 

सब खोये अपनी लगन में

कौन था अपना यहाँ?

असहनीय थी,बेगानों से ज्यादा 

चोट अपनों की मार की! 

कवि! तुम कहाँ  लिख सकोगे

कहानी नारी के अधिकार की




पिंजरे में बन्द मैना  सदियों से

गाती सबसे  रसीला गान कवि! 

उन्मुक्त उड़ान की चाह को कोई

कब यहाँ पाया जान कवि! 

समाएगी कैसे अस्फुट स्वरों में 

व्यथा   स्वर्णिम कैद की! 

गीत में ना ढल सका जो

उस निशब्द हाहाकार की! 

 कवि! तुम कहाँ  लिख सकोगे

कहानी नारी के अधिकार की



सत्य पर भ्रमित पति से

क्या प्रेम का प्रतिफल मिला? 

ऋषि  गौतम के शाप से

जो बन गई शापित शिला! 

आगंतुकों की ठोकर में

पड़ी रही निस्पंद जो

कौन व्यथा जान सका

उस अहल्या नार की! //

कवि! तुम कहाँ  लिख सकोगे

कहानी नारी के अधिकार की








कैक्टस

 

तन पर काँटे लेकर जीना
बंधु! मेरे आसान कहाँ?
सदियों सी लंबी पीड़ा भीतर
सुख से मेरी पहचान कहाँ?

ना आती  तितली  पास मेरे
ना सुनाते भँवरे गीत मुझे
आलिंगन में भर प्यार जताता जो
मिला न मन का मीत मुझे! ❤
सुगंध न मोहक व्याप्त मुझमें
लुभाती मेरी मुस्कान कहाँ!
सदियों सी लंबी पीड़ा भीतर
सुख से मेरी पहचान कहाँ?

शापित सुत धरा का मैं,
कामना कोई भीतर  शेष कहाँ!
चुभन देता मैं काँटों की ,मेरा
मृदुल और कोमल भेष कहाँ!
एक पल में सब रीझें जिस पर
मेरा वो रसीला गांन कहाँ!
सदियों सी लंबी पीड़ा भीतर
सुख से मेरी पहचान कहाँ?



रविवार, 9 मार्च 2025

प्रेम तुमने क्या ना दिया?

प्रेम! तुमने क्या ना दिया।
 बैठ तुम्हारी मृदुल छाँव में
 बूँद बूँद प्रेम रस पीया! 

तुमने आ मुझे चुना
संग सपनों को बैठ बुना
मुझ से लिया बस बूँद -भर
लौटाया कई गुना! 
तुममें हो कर लीन रहे
खुद को जी भर जीया! 
प्रेम! तुमने क्या न दिया

शनिवार, 8 मार्च 2025

ज्ञात नहीं मुझे

 ज्ञात नहीं मुझे

तुम्हारे भीतर 

मेरे हिस्से का प्रेम! 

तुम्हारे प्रेमिल संवाद  में भी

ढूँढ सकी ना खुद को यथावत , 

एक मरीचिका में बंधी

खोजती रही खुद को! 

तुम्हारे गीतों में

तुम्हारे  अनकहे  शब्दों में! 

अनायास तुम्हारे

 बिनकहे जाने से, 

लग गई है मुहर ,मुझ पर

पराएपन की! 

ठगी -ठगी हूँ मैं। 

आज अभी-अभी  इस 

भ्रामक नींद से जगी हूँ मैं!! 


ओ चाँद!

 

ओ चाँद !क्या वापस ला सकोगे
वो सुहानी- सी चाँद रात मेरी,
तुम्हारे सामने हो रही थी
जब सखा से बात मेरी!

बने साक्षी तुम्हीं सदा
उस मौन  अभिनव प्रेम के
देते रहे संदेश अनवरत
प्रिय के कुशल क्षेम के!
जिसकी  महक से महकती
हर नवल प्रभात मेरी!
ओ चाँद !क्या वापस ला सकोगे
वो सुहानी सी चाँद रात मेरी!

थी  दूधिया स्वच्छ चाँदनी
खिला  था मन का कमल!
विहंसते नयन  में झाँकती,
एक छवि अभिराम निर्मल
मुट्ठी से रेत -सी फिसली
मीठे प्यार की सौगात मेरी!
ओ चाँद! क्या वापस ला सकोगे
वो सुहानी सी चाँद रात मेरी!

अतीत की डगर- डगर
जा ढूँढती चारों पहर,
सम्बल थे जो जीने का
गुम हुए पल जाने किधर!
प्यार की रंगत थी जिसमें
खो गई  हसीं कायनात मेरी!
ओ चाँद! क्या वापस ला सकोगे
वो सुहानी सी चाँद रात मेरी!





सोमवार, 24 फ़रवरी 2025

तेरी इक पुकार पे

 तेरी एक पुकार पे पीहर

चली आती हूँ दौड़ी माँ! 

बैठ फिर सुख -दुःख साझा करती

माँ बेटी की जोड़ी माँ! 


बैकुंठ धाम- सा घर तेरा! 

देख तृप्त हो जाऊँ माँ, 

हर पीड़ा और चिंता से, 

पल में मुक्त हो जाऊँ माँ! 

स्नेह- ममता की नींव है जिसकी

तेरे त्याग की ईंट और रोड़ी माँ! 


हँसी खुशी के रंग बिखरे

तेरा आँगन अजब अनूठा माँ! 

तरुवर विशाल बन झूम रहा

संस्कार तेरे का बूटा माँ

इसके आगे फीकी जग की

ये माया लाख करोड़ी माँ! 


वो घड़ी बीत गयी

 

 

घड़ी  बीत गयी प्रिये
जिसका भीतर बड़ा भय था
सूख गया अनायास फिर
जो सुखद प्रेम किसलय था!

छद्म स्नेह की लीपापोती
थी प्रवंचक  मुखड़ों पर
कब किसकी दृष्टि पहुँच सकी
टूटे सपनों के टुकड़ों पर!
हृदयहीनता से अपनों की
विदीर्ण हुआ हृदय था!

कोई थपकी स्नेह भरी न दे पाई,
धीरज व्याकुल मन को,
हँसी खुशी के अविरल नाद
रोक सके न  भीषण कम्पन को
दावानल -सा धधकता ये
कैसा निर्मम समय था¡

रुँधे कंठ में फंसे रहे स्वर
ना अधरों तक न पहुँच सके
हंसना चाहा हँस न पाए
ना सबके आगे सिसक सके!

कसक पराजय की विचलित  करती

ना उत्साह रहा   विजय का!